Monday, 18 July 2016

15 August Independence Day History,Story

आजादी कहें या स्वतंत्रता ये ऐसा शब्द है जिसमें पूरा आसमान समाया है। आजादी एक स्वाभाविक भाव है या यूँ कहें कि आजादी की चाहत मनुष्य को ही नहीं जीव-जन्तु और वनस्पतियों में भी होती है। सदियों से भारत अंग्रेजों की दासता में था, उनके अत्याचार से जन-जन त्रस्त था। खुली फिजा में सांस लेने को बेचैन भारत में आजादी का पहला बिगुल 1857 में बजा किन्तु कुछ कारणों से हम गुलामी के बंधन से मुक्त नही हो सके। वास्तव में आजादी का संघर्ष तब अधिक हो गया जब बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि “स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है”।
अनेक क्रांतिकारियों और देशभक्तों के प्रयास तथा बलिदान से आजादी की गौरव गाथा लिखी गई है। यदि बीज को भी धरती में दबा दें तो वो धूप तथा हवा की चाहत में धरती से बाहर आ जाता है क्योंकि स्वतंत्रता जीवन का वरदान है। व्यक्ति को पराधीनता में चाहे कितना भी सुख प्राप्त हो किन्तु उसे वो आन्नद नही मिलता जो स्वतंत्रता में कष्ट उठाने पर भी मिल जाता है। तभी तो कहा गया है कि
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।
जिस देश में चंद्रशेखर, भगत सिंह, राजगुरू, सुभाष चन्द्र, खुदिराम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रान्तिकारी तथा गाँधी, तिलक, पटेलनेहरु, जैसे देशभकत मौजूद हों उस देश को गुलाम कौन रख सकता था। आखिर देशभक्तों के महत्वपूर्ण योगदान से 14 अगस्त की अर्धरात्री को अंग्रेजों की दासता एवं अत्याचार से हमें आजादी प्राप्त हुई थी। ये आजादी अमूल्य है क्योंकि इस आजादी में हमारे असंख्य भाई-बन्धुओं का संघर्ष, त्याग तथा बलिदान समाहित है। ये आजादी हमें उपहार में नही मिली है। वंदे मातरम् और इंकलाब जिंदाबाद की गर्जना करते हुए अनेक वीर देशभक्त फांसी के फंदे पर झूल गए। 13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला हत्याकांड, वो रक्त रंजित भूमि आज भी देश-भक्त नर-नारियों के बलिदान की गवाही दे रही है।
आजादी अपने साथ कई जिम्मेदारियां भी लाती है, हम सभी को जिसका ईमानदारी से निर्वाह करना चाहिए किन्तु क्या आज हम 66 वर्षों बाद भी आजादी की वास्तिवकता को समझकर उसका सम्मान कर रहे है? आलम तो ये है कि यदि स्कूलों तथा सरकारी दफ्तरों में 15 अगस्त न मनाया जाए और उस दिन छुट्टी न की जाए तो लोगों को याद भी न रहे कि स्वतंत्रता दिवस हमारा राष्ट्रीय त्योहार है जो हमारी जिंदगी के सबसे अहम् दिनों में से एक है ।
एक सर्वे के अनुसार ये पता चला कि आज के युवा को स्वतंत्रता के बारे में सबसे ज्यादा जानकारी फिल्मों के माध्यम से मिलती है और दूसरे नम्बर पर स्कूल की किताबों से जिसे सिर्फ मनोरंजन या जानकारी ही समझता है। उसकी अहमियत को समझने में सक्षम नही है। ट्विटर और फेसबुक पर खुद को अपडेट करके और आर्थिक आजादी को ही वास्तिक आजादी समझ रहा है। वेलेंटाइन डे को स्वतंत्रता दिवस से भी बङे पर्व के रूप में मनाया जा रहा है।
आज हम जिस खुली फिजा में सांस ले रहे हैं वो हमारे पूर्वजों के बलिदान और त्याग का परिणाम है। हमारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि मुश्किलों से मिली आजादी की रुह को समझें। आजादी के दिन तिरंगे के रंगो का अनोखा अनुभव महसूस करें इस पर्व को भी आजद भारत के जन्मदिवस के रूप में पूरे दिल से उत्साह के साथ मनाएं। स्वतंत्रता का मतलब केवल सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता न होकर एक वादे का भी निर्वाह करना है कि हम अपने देश को विकास की ऊँचाइयों तक ले जायेंगें। भारत की गरिमा और सम्मान को सदैव अपने से बढकर समझेगें। रविन्द्र नाथ टैगोर की कविताओं से कलम को विराम देते हैं।
हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत
हो ज्ञान जहाँ पर मुक्त, खुला यह जग हो
घर की दीवारें बने न कोई कारा
हो जहाँ सत्य ही स्रोत सभी शब्दों का
हो लगन ठीक से ही सब कुछ करने की
हों नहीं रूढ़ियाँ रचती कोई मरुथल
पाये न सूखने इस विवेक की धारा
हो सदा विचारों ,कर्मों की गतो फलती
बातें हों सारी सोची और विचारी
हे पिता मुक्त वह स्वर्ग रचाओ हममें
बस उसी स्वर्ग में जागे देश हमारा।

स्वतंत्रता दिवस के पावन पर्व पर सभी पाठकों को हार्दिक बधाई।
जय भारत

ओजपूर्ण कविता के धनी माखनलाल चर्तुवेदी : १५ अगस्त पर विशेष

आजादी के संघर्ष में भारत माता के अनेक देशभक्तों ने मातृभूमि को स्वतंत्र कराने हेतु अपने-अपने तरीके से प्रयास किया। क्रान्तिकारी वीरों ही नही, अपितु कलम को हथियार मानने वाले अनेक साहित्यकारों ने भी जन-जागरण में जोश 
माखनलाल चर्तुवेदी Makhanlal Chaturvedi essay in Hindi
भरने के लिए कई वीर रस की कविताओं का सृजन किया। आजादी के आन्दोलन में अनेक कवियों के काव्य में देशभक्ति का जज़बा स्पष्ट दिखाई दे रहा था। एक ओर बमकिम चन्द्र का वन्दे मातरम् और इकाबालका सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमार, जन-जन की वाणीं बनकर आजादी का आगाज कर रहा था। तो दूसरी तरफ जय शंकर प्रसाद का गीत, “अमर्त्य वीर-पुत्र, दृण-प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पन्थ है, बढे चलो बढे चलो”, देश भक्तों में उत्साह का संचार कर रहा था। ऐसे में आजादी के आंदोलन में देशभक्त माखनलाल चर्तुवेदी की अभिलाषा अनेक वीरों के लिए प्रेरणा स्रोत रही। कवि माखनलाल चर्तुवेदी जी फूल को माध्यम बनाकर अपनी देशभक्ति की भावना को कविता के रूप में प्रकट करते हैं –

चाह नही, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नही सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं देवों के सिर पर चडूँ भाग्य पर इठलाऊँ
मुझे तोङ लेना वनमाली!
उस पथ पर तुम देना फेंक।
मातृ-भूमि पर शीश चढाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।।

कविता का आशय है कि, पुष्प कहता है कि मेरी इच्छा किसी सुंदरी या सुरबाला के गहनें में गुथने की नही है। मेरी इच्छा किसी प्रेमी की माला बनने में भी नही है। मैं किसी सम्राट के शव पर भी चढना नही चाहता और ना ही देवताओं के मस्तक पर चढकर इतराना चाहता हूँ। मेरी तो अभिलाषा है कि मुझे वहाँ फेंक दिया जाये जिस पथ से मातृ-भूमि की रक्षा के लिये वीर जा रहे हों।
माखनलाल चर्तुवेदी की ये कविता “पुष्प की अभिलाषा” 18 फरवरी 1922 को लिखी गई थी। यानी लगभग आठ दशक पहले। उस समय आजादी का संघर्ष देश में पूरे जोर-शोर से चल रहा था। आजादी के संघर्ष में माखनलाल चर्तुवेदी कई बार जेल गये थे। उन्होने अपनी अभिलाषा को फूल के माध्यम से बहुत ही सरल तरीके से जन-जन मे फैलाया। ऐसे देशभक्त कवि माखनलाल चर्तुवेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्य प्रदेश में हुआ था। वे बचपन में बेहद शरारती थे और तुकबंदी में बाते करते थे। सत्रह साल की उम्र में खंडवा में पढाना आरंभ कर दिये थे। अध्यापन के दौरान ही उनका सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हुआ।
देशप्रेम की ललक उनमें बहुत गहरे में समाई हुई थी। वे क्रान्तिकारियों की हर संभव मदद किया करते थे। वकील कालूराम जी गंगराडे के सहयोग से सन् 1913 में ‘प्रभा’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। जिसमें चर्तुवेदी जी संपादन सहयोगी रहे। देशभक्ति की भावना और साहित्य की सेवा का जज़बा इतना अधिक था कि उसी वर्ष नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। 1915 में जब माखनलाल चर्तुवेदी सिर्फ पच्चीस वर्ष के थे, तो उनकी पत्नी का देहांत हो गया। उसके बाद उन्होने दुबारा विवाह नहीं किया और देश की आजदी के लिए स्वयं को सर्मपित कर दिया। माधवराव सप्रे को वे अपना साहित्यिक गुरू मानते थे। प्रसिद्ध देशभक्त गंणेश शंकर विद्यार्थी के भी संपर्क में रहे। 17 जुलाई 1920 को गाँधी जी से प्रेरित होकर उन्होंने ‘कर्मवीर’ नामक राष्ट्रीय साप्ताहिक को प्रकाशित किया, जिसका प्रकाशन तीस सालों तक होता रहा। अपने राजनीतिक विचारों और गतिविधियों तथा उग्र राष्ट्रीय लेखन के कारण कई बार जेल गये। 1920 में असहयोग आन्दोलन के दौरान महाकौशल अंचल से गिरफ्तारी देने वाले वे पहले व्यक्ति थे। साहित्य के प्रति भी उनकी गहरी आस्था थी। उन्होने सिर्फ कविताएं ही नही लिखी बल्कि अनेक नाटकों, कहानियों और निबंधो का भी सृजन किया। माखनलाल चर्तुवेदी अच्छे वक्ता भी थे। उन्होने आजादी के पहले अंग्रेज सत्ता का विरोध किया तो बाद में देश का शोषण करने वाले पूँजीपतियों पर भी अपनी कलम के माध्यम से प्रहार किया। उन्होने अपने बारे में एक बार लिखा था कि,
“मेरी धारणाओं के निर्माण में विंध्या और सतपुङा के ऊँचे-नीचे पहाङ, आङे-तिरछे घुमाव, उनके बीहङ नदी-नालों के कभी कलकल स्वर और कभी चिघाह, उसमें मिलने वाले हिंसक जन्तु तथा मेरा पीछा करने वाली अंग्रेज पुलिस, इनके सम्मिश्रण से ही मेरे जीवन और साहित्य का निर्माण हुआ है।“

सच्चे देशभक्त और प्रकृति प्रेमी माखनलाल चर्तुवेदी जी को आजादी के उपरान्त अनेक पुरस्कारों से अंलंकृत किया गया। ‘पुष्प की अभिलाषा’ और ‘अमर राष्ट्र’ जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि के कृतित्व को सागर विश्वविद्यालय ने 1959 में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। 1963 में भारत सरकार द्वारा आपको ‘पद्मभूषण से अलंकृत किया गया। 10 सितम्बर 1967 को आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में इस अलंकरण को लौटा दिया। देशभक्त एवं सच्चे पत्रकार माखनलाल चर्तुवेदी जी की याद में भोपाल में 1990 में माखनलाल चर्तुवेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। सन् 1968 में ओजपूर्ण रचनाकार देशभक्त पत्रकार माखनलाल चर्तुवेदी जी का निधन हो गया। मानवता के प्रतीक माखनलाल चर्तुवेदी भारत की आत्मा हैं। आपकी ओजपूर्ण रचनाएं आज भी अनेक देशभक्त वीरों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में माखनलाल चर्तुवेदी जी के योगदान को शत् शत् नमन करते हैं।
जय भारत

वन्दे मातरम्


भारत की आजादी से पूर्व अनेक देशभक्त अपने-अपने प्रयासों से जातिय बंधनो से मुक्त होकर भारत माता को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने का हर संभव प्रयास कर रहे थे। उसी दौरान आजादी के संघर्ष में वन्दे मातरम् जन-जन की आवाज था।  गीता का ज्ञान, कुरान की आयते तो गुरु ग्रन्थ साहिब की वाणीं को एक उदद्घोष में भारत माता के वीर सपूत गुंजायमान कर रहे थे। वन्दे मातरम् अनेक लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत रहा। इस राष्ट्रीय उद्घोष का इतिहास एक सौ वर्ष से भी अधिक पुराना है। सबसे पहले इस गीत का प्रकाशन 1882 में हुआ था और इस गीत को सर्वप्रथम 7 सितम्बर 1905 के कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रगीत का दर्जा प्राप्त हुआ था। 

वन्दे मातरम् गीत की रचना प्रख्यात उपन्यासकार बंम्किमचंद चटोपाध्या ने की थी। उन्होने 19वीं शताब्दी के अन्त में बंगाल के मुस्लिम शासकों के क्रूरता पूर्वक व्यवहार के विरोध में आन्नद मठ नामक एक उपन्यास लिखा। जिसमें पहली बार वंदे मातरम् गीत छपा जो पूरे एक पृष्ठ का था। इस गीत में मातृभूमि की प्रशंसा की गई थी। ये गीत संस्कृत और बंगला भाषा में प्रकाशित हुआ था। 

वन्दे मातरम् का उद्घोष सबसे अधिक 1905 में हुआ जब तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड कर्जन ने "बाँटो और राज करो" की नीति का अनुसरण करते हुए बंगाल को दो टुकङों में विभाजित करने की घोषङा की और इस विभाजन को बंग-भंग का नाम दिया। लार्ड कर्जन की इस नीति का जबरदस्त विरोध हुआ। उस समय विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी आन्दोलन के साथ-साथ वन्दे मातरम् को व्यापक रूप से जन-साघारण ने अपनाया। इसके बाद अंग्रेजों के विरुद्ध जो भी आन्दोलन हुआ उसमें वंदे मातरम् जन-जन की वाणी बना। बंगाल से शुरु हुआ ये उद्घोष पूरे देश में फैल गया।


अखिल भारतिय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी वंदे मातरम् उद्घोष को अपनाया। समय के साथ-साथ और परिस्थितियों के अनुसार वंदेमातरम् गीत में अनेकों बार संशोधन किय गये। अंत में इसके विस्तार को हठाकर चार पंक्तियों तक सिमित कर दिया गया। कांग्रेस के अधिवेशनों का प्रारंभ इसी गान के गायन से प्रारंभ होता था और समाप्त होता था। अतः ये गीत राष्ट्रीयता के रंग में रंग गया। 


सन् 1896 में  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कलकत्ता के अधिवेशन में रविन्द्रनाथ टैगोर ने वन्दे मातरम् गीत गाया था। 1905 में बनारस के अधिवेशन में इस गीत को सरला देवी चौधरानी ने स्वर दिया। अधिवेशन में सभी धर्म के लोग होते थे, वे सभी इस गीत के प्रति खङे होकर अपना सम्मान व्यक्त करते थे। अंततः ये हमारा राष्ट्रीय गीत बना। 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तब 14 से 15 अगस्त की मध्य  रात्रि में सत्ता के हस्तांतरण के लिए तत्कालीन केन्द्रिय असेम्बली का गठन किया गया जिसका प्रारंभ वंदे मातरम् के गायन से हुआ। ये गीत सुमधुर तरीके से सुचेताकृपलानी द्वारा प्रस्तुत किया गया। इस विशेष अधिवेशन का सामापन भी वन्दे मातरम् गीत से हुआ। असेम्बली के कक्ष में उपस्थित सभी सदस्यों ने इस गायन में श्रद्धा पूर्वक भाग लेकर उद्घोष के प्रति अपना सम्मान प्रकट किया। पूरा कक्ष वंदे मातरम् की गुंज से गुंजायमान हो गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त जब भारत का संविधान निर्मित हो रहा था, तब ये प्रश्न उठा कि वंदे मातरम् गीत को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया जाये या किसी अन्य गीत को। उस दौरान तत्कालीन संगीतकारों का ये मानना था कि,  वंदेमातरम् गीत को लयबध करना कुछ कठिन है। अतः इसके अतिरिक्त किसी अन्य गीत को राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया जाये। अंत में  रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित 'जन  मन गण' को अपनाया गया।


वैसे तो संविधान सभा के अधिकांश सदस्य वंदे मातरम् को ही राष्ट्र गीत मानते थे क्योंकि ये गीत जनता के मानस पटल पर छाया हुआ था। परंतु जवाहरलाल नेहरु के आग्रह पर 'जन मन गण' को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया गया और साथ ही साथ वन्दे मातरम् को भी अनिवार्य माना गया। केवल तत्कालीन मुस्लिम लीग इस गीत का विरोध करती रही। परंतु स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 को वन्दे मातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धि एक व्यक्तव्य पढा जिसे सभा द्वारा स्वीकार किया गया। 


इस गीत की प्रसिद्धी का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, 2003 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक सर्वे में शीर्ष दस गीतों में वन्दे मातरम् गीत दूसरे स्थान पर था। इस सर्वे में लगभग 150 देशों ने मतदान किया था। 

ये अजीब विडम्बना है कि पिछले कुछ समय से वन्दे मातरम् पर विवाद उत्पन्न हो रहा है। विवाद मुख्यतः ये है कि इस गायन से मुर्ती पूजा का भाव प्रकट होता है। इस कारण मूर्ती पूजा के विरोधी सम्प्रदाय इसकी उपेक्षा करने लगे हैं। जबकि स्वतंत्रता से पूर्व मौलाना अबुल कलाम आजाद और सिमान्त गाँधी यानि की खान अब्दुल्ल गफ्फार खाँ जो की पाँचो समय की नमाज पढते थे, वे भी वन्दे  मातरम् के प्रति खङे होकर सम्मान व्यक्त करते थे। परंतु आज कुछ अलग तरह की राजनितिक वातावरण के कारण मातृ भूमी को नमन करतावन्दे मातरम् गीत उपेक्षित हो रहा है। जबकि सैकङों देशभक्त इस उद्घोष को बोलते-बोलते फांसी के फंदे पर झूलकर शहीद हो गये। 

मित्रों, सवतंत्रता दिवस की 68वीं वर्षगाँठ पर हम सब ये संक्लप लें कि शहिदों की शहादत को याद करते हुए वन्दे मातरम् को सम्पूर्ण भारत में गुंजायमान करेंगे। 


वन्दे मातरम्।
सुजलाम् सुफलाम् मलयजशीतलाम्,
शस्यश्यामलाम् मातरम्। वन्दे मातरम्।। 

शुभ्रज्योत्सना पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदाम् वरदाम् मातरम्। वन्दे मातरम्।। 

अर्थात, हे भारत माँ मैं आपकी वंदना करता हुँ। स्वच्छ और निर्मल पानी, अच्छे फलों,  सुगन्धित सुष्क समीर (हवा) तथा हरे भरे खेतों वाली माँ, मैं आपकी वंदना करता हूँ। सुन्दर प्रकाशित रात,  सुगंधित खिले हुए फूलों एवं घने वृक्षों की छाया प्रदान करते हुए, सुमधुर वाणी के साथ वरदान देने वाली भारत माता मैं अपकी वंदना करता हूँ। मैं आपकी वंदना करता हूँ।  

जय भारत 

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